तीन तलाक : बस इतना ही समझना है, मनुष्‍यता से बड़ा कोई धर्म नहीं - दयाशंकर मिश्र - Arrah City | Arrah Bhojpur Bihar News

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तीन तलाक : बस इतना ही समझना है, मनुष्‍यता से बड़ा कोई धर्म नहीं - दयाशंकर मिश्र

तीन तलाक : बस इतना ही समझना है, मनुष्‍यता से बड़ा कोई धर्म नहीं - दयाशंकर मिश्र

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हमें आगे चलने वाले, लोहा लेने वाले युवा चाहिए. हमें नहीं चाहिए 'धर्म में हस्‍तक्षेप' जैसे खोखले बयान. नहीं चाहिए, 'परंपरा में दखल नहीं देने जैसे तर्क'.

हमारे देश में अपनी राय रखते वक्‍त इस बात पर बड़ा जोर दिया जाता है कि राय किसके बारे में है. और कौन सा दल, विशेषज्ञ राय रख रहे हैं. तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसका अपवाद नहीं है. शाहबानो के प्रति लोकतंत्र के क्रूर मजाक के वक्‍त मौन साधे रहने वाले इस वक्‍त इधर-उधर की बात कर रहे हैं. जबकि वक्‍त लाखों महिलाओं के साथ खड़े होने और उनके दिमाग को रोशन करने का है. उन्‍हें भ्रम के जालों की उलझन से बचाने का है...
मुझे तकलीफ इस बात से ज्‍यादा है कि जिनकी ओर वे देख रही हैं उजाले के लिए, वे मशरूफ हैं अपनी 'सोच के दायरों 'को पुख्‍ता करने में. बचकाने तर्क गढ़ने में.
ये सभी बस इतना बता दें कि हम राजा राममोहन राय और ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर को क्‍यों पूजते हैं. रायने तो 1829 में ही हिंदू धर्म के कायदों को उलटा लटकाते हुए महिलाओं के उन अधिकारों के लिए संघर्ष किया जिनकी रोशनी से आज हिंदुस्‍तान के आंगन में थोड़ा ही सही पर उजियारा तो हो सका है.
जब समय आगे की ओर देखने का है, अचानक 'बड़ी' सोच के लोग छोटे तर्क लेकर मैदान में उतरे हैं. ये सब वही हैं, जो असल में मुसलमानों को ठगने, उन्‍हें अनपढ़ बनाए रखने के कुसूरवार हैं.
उनके लिए कुछ न करने वाले, उन्‍हें एक बार फि‍र इल्‍म, आजादी की राह में साथ देने की जगह मानो बरगलाने पर आमादा हैं. ये समाज के कथित पहरेदार भूल रहे हैं कि कोई भी धर्म मानवता से बड़ा नहीं होता. कोई कानून इतना सख्‍त नहीं हो सकता है कि वह अपनी बेटियों की नर्क होती जिंदगी की बजबजाहट को महसूस न कर सके.
 
बहुत पुरानी बात नहीं है, जब प्रस्तावित हिन्दू विवाह कानून के खिलाफ संसद से लेकर सड़क तक हिन्दू महासभा के लोग विरोध कर रहे थे. इस पर अंबेडकर और पंडित नेहरू के बीच मतभेद भी थे. लेकिन कुछ देर से ही सही नेहरू ने खतरे उठाकर इस बिल को पास करवाया. हमें अंबेडकर और नेहरू का इसके लिए आभारी होना चाहिए.

ऐसे में थोड़ा सा श्रेय अगर सरकार को चला जाए तो कोई बुराई नहीं, क्‍योंकि खतरा तो उनने उठाया ही है. काश! यह खतरे समय रहते उठा लिए गए होते.
यानी धर्म में दखल दिया न. क्‍योंकि मनुष्‍यता की सबसे बड़ी मांग, बराबरी है. तो वे सब जो उस समय इसे जीत बता रहे थे, आज क्‍यों दुबक रहे हैं.
यह दुबकने का नहीं, सबके साथ चलने का समय है. हिंदुस्‍तान के समाज से दकियानूसी को निकालने की सुबह का समय है. इसे जाया नहीं करना है. भरी दुपहरी में जो फैसला आया है, उसे दिमागों में रोशन किए रखनेके लिए सबको संघर्ष करना होगा.
मैं फि‍र कहूंगा मुझे नहीं चाहिए वो ईमान और धर्म जो मेरे वतन के लोगों को न्‍याय जैसे मूलभूत अधिकार से वंचित रखे. कैसे दूसरे धर्म के किसी सदस्‍य को बस इसलिए अधिकार से वंचित रखा जा सकता है कि वह महिला है! अधिकार भी कैसा. जो एकदम प्राकृतिक न्‍याय के विरुद्ध है.
तीन तलाक पर लिखने के लिए मैंने अनेक प्रख्‍यात, ख्‍यात लोगों को आमंत्रित किया. बहुत से लोग आए भी. लेकिन बहुत से नहीं आए, क्‍योंकि वह अपनी छवि को लेकर चिंतित हैं. अरे! कोई हमें मुसलमान विरोधीन समझ ले. यह डर! जब लेखकों के भीतर भरा बैठा है, तो उन दलों का क्‍या कहना जिन्‍होंने ऐसी ही सोचसे मुसलमानों की जिंदगी को दलदल बना दिया है.
यह एकदम सही समय है, जब हमें मुसलमानों के भीतर से भी राजा राममोहन राय और ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर जैसे चेहरे और उन चेहरों में अपने समाज के लिए गहरी संवेदना चाहिए. यह चेहरे दूसरे समाज से भी हो सकते हैं, लेकिन अविश्‍वास और उन्‍माद के दौर में वह अपनी बात कितनी मनवा सकेंगे, कहना मुश्किल है.
समाज का विरोध झेलकर उसकी बेहतरी के लिए लड़ने का लोहा जिनके भीतर होता है, वही समाज को सही दिशा दे सकते हैं. बाकी उनके पदचिह्नों पर चल सकते हैं. उससे ज्‍यादा नहीं.
इसलिए हमें आगे चलने वाले, लोहा लेने वाले युवा चाहिए. हमें नहीं चाहिए 'धर्म में हस्‍तक्षेप' जैसे खोखले बयान. नहीं चाहिए, 'परंपरा में दखल नहीं देने जैसे तर्क'. नहीं चाहिए 'अन्‍याय की गठरी' को बार-बार धर्म के ठेकेदारों की ओर धकेले जाने वाले तर्क. नहीं चाहिए कोई भी ऐसा धार्मिक 'बोर्ड', जिसके पास 'न्‍याय और हक' की जगह परंपरा जैसे शब्‍द हों. कोई भी परंपरा मनुष्‍य से बड़ी नहीं है. और मनुष्‍यता से बड़ा कोई धर्म नहीं है.
एक बार फि‍र शुक्रिया, आरिफ मोहम्‍मद खान साहब. आपके उस हौसले, लोहा लेने और जिद को सलाम. जिसने सत्‍ता की चाशनी की जगह उस रोशनी का हमसफर बनना चुना, जिसकी तपन ने उसे खुद सारी जिंदगी सुकून से नहीं जीने दिया. हमें ऐसे और कई- कई आरिफ मोहम्‍मद खान चाहिए. जो उस गैर बराबरी को तोड़ने का हुनर, हौसला रखें. जिसे वोट के नाम पर पार्टियां बस छले जा रही हैं.
इस निर्णय में कुछ बड़ी कमियां हैं. खासकर जिस आधार पर यह फैसला दिया गया, उसे वैज्ञानिक सोच, संवैधानिक दृष्टि से तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.और अकेले इस फैसले से सबकुछ इतनी जल्‍दी बदलेगा भी नहीं. जब तक मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी सोच नहीं बदलेगा, तब तक उस समाज को नई नजर कहां से मिलेगी, जिसकी खुद उसे सबसेे ज्‍यादा जरूरत है.  इन सारी बातों पर बात होगी ही लेकिन अभी इस बात पर सबसे ज्‍यादा जोर देने की जरूरत है कि इस बात को सबसे आखिरी, कमजोर व्‍यक्ति तक पहुंचाया जाए कि कोई नियम, कायदा मनुष्‍यता और समानता से बड़ा नहीं है.
दयाशंकर मिश्रा (लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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